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कैंसर नए करिश्माई इलाज

时间:2023-09-18 23:18:49 来源:网络整理编辑:आज तक न्यूज़

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जब राहुल पुरवार हार्वर्ड मेडिकल स्कूल से इम्यूनोथेरैपी—जो सटीक और रोगी के हिसाब से ढली ओंकोलॉजी या क

जब राहुल पुरवार हार्वर्ड मेडिकल स्कूल से इम्यूनोथेरैपी—जो सटीक और रोगी के हिसाब से ढली ओंकोलॉजी या कैंसर विज्ञान की शाखा है और कैंसर की कोशिकाओं की रोकथाम,कैंसरनएकरिश्माईइलाज नियंत्रण और उन्मूलन के लिए शरीर की अपनी इम्यून या प्रतिरक्षा प्रणाली का इस्तेमाल करती है—का प्रशिक्षण लेकर 2013 में भारत लौटे, तो उन्होंने यहां वह प्रोटोकॉल सिरे से नदारद पाया. वे कहते हैं, ''मरीज के लिए केवल तीन विकल्प थे.कीमोथेरैपी, रेडिएशन या सर्जरी. ये कारगर न हुए तो कोई और विकल्प नहीं था—कैंसर आपकी मौत का परवाना था.’’ वहीं अमेरिका, चीन, इज्राएल और यूरोप में इम्यूनोथेरैपी के रोमांचक परीक्षण उसे कैंसर के इलाज की संभावना से भरपूर टेक्नोलॉजी के तौर पर स्थापित कर रहे थे. वे यह भी कहते हैं, ''भारत को इलाज की ज्यादा जरूरत थी क्योंकि देश में मामले ज्यादा थे, पर नए इलाज दूसरे देशों में पेश किए जा रहे थे.’’पुरवार उसी साल प्रोफेसर के तौर पर आइआइटी बॉम्बे से जुड़ गए और संस्थान की लैब का इस्तेमाल इम्यूनोइंजीनियरिंग की एक टीम बनाने के लिए करने लगे. इस टीम ने अगले 3-4 साल देश की पहली स्वदेशी किमेरिक ऐंटीजन रिसेप्टर टी-सेल थेरैपी, सीडी-19 सीएआर-टी विकसित करने में बिताए. यह एक उपचार है जिसमें कैंसर की कोशिकाओं को खोजने और उन पर हमला करने के लिए इनसान की टी-कोशिकाओं (एक प्रकार की श्वेत रक्त या प्रतिरक्षा कोशिकाएं) को प्रयोगशाला में बदला जाता है.आज सीडी-19 सीएआर-टी को दो पेटेंट मिल चुके हैं और अमेरिका में कुछ निश्चित रक्त कैंसरों के इलाज की स्वीकृति भी. अब भारत में इसके दूसरे/तीसरे चरण के परीक्षणों की तैयारी चल रही है और उम्मीद है कि अगले साल की शुरुआत में भारत के अस्पतालों में इसे इलाज के लिए पेश किया जाए. पुरवार कहते हैं, ''भारत में जीन और सेल थेरैपी के लिए यह रोमांचक समय है.’’वे अब इम्यूनोएसीटी के सीईओ हैं और उनकी यह कंपनी स्वीकृति मिलते ही यह नई थेरैपी विदेशों के मुकाबले बहुत कम खर्च पर भारत में मुहैया करेगी. वे कहते हैं, ''निवेश और दिलचस्पी बहुत ज्यादा है और नतीजे बहुत उत्साहवर्धक हैं. अमेरिका में 3-4 करोड़ रुपए के मुकाबले हम प्रति मरीज 30 लाख रुपए के खर्च का अनुमान लगा रहे हैं.’’ इससे उन लोगों को नई जिंदगी मिलनी चाहिए जो कैंसर को जिंदगी का अंत समझते थे.कैंसर की बीमारी में कोशिकाएं अनियंत्रित और असामान्य ढंग से बंटती हैं और स्वस्थ टिश्यू या ऊतकों को भी नष्ट कर देती हैं, और अंतत: व्यक्ति की जान ले लेती हैं. सभी कैंसर कोशिकाओं के भीतर अंदरूनी जेनेटिक बदलावों से शुरू होते हैं. कोशिकाएं कितनी और कितनी बार बंटें, इस पर नियंत्रण के लिए वे आम तौर पर संकेत उत्पन्न करती हैं.इनमें से कोई भी संकेत गलत या खराब हुआ तो कोशिकाएं अनियंत्रित बढ़ने लगती हैं, जिसके नतीजतन गांठ या ट्यूमर होता है. कैंसर में शरीर कैंसर की कोशिकाओं को उसी तरह पहचान और दूर नहीं कर पाता जैसे वह आक्रमणकारी वायरसों और बैक्टीरिया का पता लगा सकता है.कैंसर का इलाज अभी तक रेडिएशन (विकिरण) या कीमोथेरैपी (रसायन चिकित्सा) के भरोसे है, जिसमें कैंसर की कोशिकाओं को मार देते हैं, या सर्जरी के भरोसे, जिसमें ट्यूमर को पूरा निकाल देते हैं. मगर हीमैटोलॉजिकल या रक्त कैंसर सरीखे कुछ प्रकार के कैंसरों की उन्नत अवस्था में इन इलाजों की सफलता की दर 10 फीसद से भी कम है.कीमो या रेडिएशन के साइड-इफेक्ट—थकान, मितली, उलटी, दस्त, शरीर दर्द, त्वचा व बालों में बदलाव, रक्तस्राव, अनिद्रा—एक और हिम्मत तोड़ने वाला कारक है, क्योंकि दोनों इलाज कैंसर की कोशिकाओं के साथ अंतत: शरीर की स्वस्थ सामान्य कोशिकाओं को भी नुक्सान पहुंचाते हैं. मौजूदा इलाज कैंसर की हरेक कोशिका को खत्म कर देने की भी गारंटी नहीं देते—उन्नत अवस्था के कैंसरों में इसके दोबारा होने की संभावना 30-40 फीसद जितनी ज्यादा बनी रहती है.उन्नत होता बायोटेक्नोलॉजी उद्योग इस मायूसी को दूर कर रहा है. यह कैंसर की पहचान, रोकथाम और कुछ मामलों में इलाज के भी नई पीढ़ी के समाधानों को बढ़ावा दे रहा है. चिकित्सीय ऐंटीबॉडी दवाओं (जो कैंसर कोशिकाओं की सतह पर प्रोटीनों को पहचानकर उन पर निशाना साध सकती हैं.जैसे भारत में पिछले महीने लॉन्च रोश की स्तन कैंसर की दवा पीएचईएसजीओ या फेस्गो) से लेकर सीएआर-टी थेरैपी और शुरुआती अवस्था में ही कैंसर का पता लगाने के लिए मॉलिक्यूलर ब्लड टेस्ट या आण्विक रक्त परीक्षण, व्यक्ति के अनुरूप कैंसर के इलाज (जिनमें से कई पहले या तो जेब और पहुंच से बाहर थे या अविश्वसनीय थे) तक उस रोग के समूचे नजरिए को बदल रहे हैं जिसे प्रसिद्ध ओंकोलॉजिस्ट-लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने संभ्रांत ढंग से ''व्याधियों का सम्राट’’ कहा है.सिद्धार्थ मुखर्जी के साथ 2019 में भारतीय इम्यूनोथेरैपी कंपनी इम्यूनील की सहस्थापना करने वाली और बायोकॉन की चेयरपर्सन किरण मजूमदार-शॉ कहती हैं, ''बीमारी के तौर पर कैंसर चिकित्सा और उपचारों के विकास से गुजरा है. सर्जरी, कीमोथेरैपी और रेडियोथेरैपी से लेकर कुछ निश्चित किस्म के कैंसर ऐंटीजन को निशाना बनाने वाली कैंसर इम्यूनोथेरैपी तक हमने लंबा सफर तय किया है.’’वे बताती हैं कि कुछ कैंसरों से जीवित बचने की दर में तेज उछाल आई है—मसलन, स्तन कैंसर से जीवित बचने की दर एक दशक पहले 10 फीसद थी, जो आज करीब 90 फीसद है, बशर्ते समय से इसका पता चल जाए. वे कहती हैं, ''कुछ कैंसर का पूर्वानुमान इतना अच्छा है कि आप कह सकते हैं कि आप अमुक कैंसर से मर सकते हैं, पर आप उससे मर नहीं पाएंगे.’’उस देश में जहां कैंसर के मामले अमेरिका और चीन के बाद तीसरे सबसे ज्यादा हैं, इन उपचारों की संभावनाएं बेहद प्रबल हैं. भारत में ट्रिपल नेगेटिव स्तन कैंसर (एक आक्रामक कैंसर जिसमें हॉर्मोंस एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टरॉन तथा प्रोटीन एचईआर2 के रिसेप्टर गायब होते हैं) की दर भी दुनिया भर में सबसे ज्यादा है, और साथ ही महिलाओं में मुख के कैंसर के मामले भी बहुत ज्यादा हैं.विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2020 की विश्व कैंसर रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2018 में सभी उम्र के स्त्री और पुरुषों में कैंसर के 11.6 लाख नए मामले थे और पांच साल से ज्यादा वक्त से यह बीमारी झेल रहे मरीजों के 22.6 लाख मामले थे. संसद में 2022 में एक सवाल के जवाब से पता चला कि 2020 में इस बीमारी से भारत में 7,70,230 लोग मारे गए. यह 2020 में कोविड से मारे गए लोगों के मुकाबले करीब सात गुना ज्यादा है.भारत में कैंसर के मामलों पर किए गए और बीएमसी कैंसर जर्नल में प्रकाशित आइसीएमआर (भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद) के 2022 के एक अध्ययन ने अनुमान जाहिर किया कि 2025 तक भारत में कैंसर के 2.98 करोड़ मामले हो सकते हैं. ये नीति आयोग के अनुमान के हिसाब से उस साल भारत की 1.4 अरब आबादी के 2 फीसद होंगे. आइसीएमआर का अध्ययन इनमें से 40 फीसद मामलों की वजह इन सात में से एक कैंसर को बताता है—फेफड़े, स्तन, भोजन नलिका, मुख, पेट, लीवर और गर्भाशय ग्रीवा.बढ़ती बीमारी के साथ खर्च का बोझ भी बढ़ रहा है. 2020 में टाटा मेमोरियल के अध्ययन ने गणना की कि भारत ने 2020 में अकेले मुख कैंसर के इलाज पर बीमा, सरकार, निजी क्षेत्र के खर्च, मरीज की जेब से किए गए खर्च, और/या चैरिटेबल चंदों के जरिए करीब 2,385 करोड़ रुपए खर्च किए. इसी अध्ययन ने यह पूर्वानुमान भी जताया कि यह आर्थिक बोझ अगले 10 सालों के दौरान बढ़कर 23,724 करोड़ हो जाएगा और वह भी महंगाई को हिसाब में जोड़े बगैर.यहीं इम्यूनोथेरैपी या प्रतिरक्षा उपचार की अहमियत सामने आती है. बीते कुछ साल में कैंसर रिसर्च ने इस पर ध्यान केंद्रित किया है कि कैंसर की कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें नष्ट करने के लिए खुद इनसान के शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को कैसे और किन तरीकों से सक्रिय किया जा सकता है. गुरुग्राम स्थित आर्टेमिस अस्पताल में ओंकोलॉजी के चेयरपर्सन और नई दिल्ली के अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान में मेडिकल ओंकोलॉजी के पूर्व प्रमुख डॉ. ललित कुमार बताते हैं, ''बीमारी से निजात पाने का शरीर का अपना तंत्र है.कैंसर में यह तंत्र किसी न किसी तरह ठप हो जाता है. बहुत सारे नए उपचारों का वास्ता इस बात से है कि इन कोशिकाओं को छिन्न-भिन्न करने के लिए शरीर को कैसे तैयार किया जाए.’’ इम्यूनोथेरैपी पक्का करती है कि केवल ट्यूमर को निशाना बनाया जाए और स्वस्थ कोशिकाओं को नहीं, जिससे साइड-इफेक्ट कम होते हैं. और अगर दोबारा होता है तो इम्यून या प्रतिरक्षा प्रणाली नुक्सानदायक कोशिकाओं को पहचान सकती है.महाराष्ट्र में नासिक की मॉलिक्यूलर ओंकोलॉजी फैसिलिटी दातार कैंसर जेनेटिक्स की क्लिनिकल डायरेक्टर डॉ. सुधा एस. मूर्ति कहती हैं, ''कैंसर जटिल बीमारी है और इसमें डीएनए, आरएनए, प्रोटीन, मेटाबोलाइट वगैरह के स्तर पर बहुत असामान्यताएं होती हैं.’’ भारत और विदेशों में पूरे हो चुके और चल रहे कई अध्ययनों से स्थिति के अनुरूप कैंसर विरोधी इलाज करवाने वाले मरीजों में निदान के बेहतर नतीजों का पता चला. उन्हें कई मानदंडों के आधार पर चुना गया, जिनमें डीएनए, आरएनए और दूसरे बायोमार्कर—जैसे मंडरा रही ट्यूमर कोशिकाओं की संख्या, ट्यूमर कोशिकाओं में पाए गए म्यूटेशन की मात्रा या कुछ निश्चित प्रोटीन की मात्रा, और कोशिकाओं में जेनेटिक त्रुटियां—का विश्लेषण है.भारत में अब इम्यूनोथेरैपी के कई उल्लेखनीय उपक्रम हैं, जिनमें शामिल हैं क्यूराडेव, बगवर्क्स रिसर्च, इम्यूनील थिरैप्यूटिक्स, जुमुटर और ऑरिजीन डिस्कवरी टेक्नोलॉजीज. इम्यूनील ने पिछले महीने 1.5 करोड़ डॉलर के अपने सीरीज ए फंड रेजिंग राउंड का ऐलान किया. इसी साल बगवर्क्स रिसर्च ने 1.8 करोड़ डॉलर उन अणुओं के प्री-क्लिनिकल विकास के लिए उगाहे जो ट्यूमर पर वहां निशाना साधेंगे जहां मानव कोशिकाओं में पाया जाने वाला रासायनिक यौगिक एडीनोसिन न्यूरोट्रांसमिशन में भूमिका निभाता है.जुमुटर अपने एनके-सेल थेरैपी अणु (सीएआर-टी थेरैपी के समान, जिसमें फोकस टी-कोशिका पर नहीं, बल्कि एनके या 'नेचुरल किलर’ कोशिका पर है) के लिए इस साल यूएस फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेश के यहां खोजपरक नई दवा के विकास की अर्जी दाखिल करने का मनसूबा बना रहा है और उसने हाल ही में 62 लाख डॉलर की सीरीज ए3 फंडिंग जुटाई है.गुरुग्राम स्थित मेदांता—द मेडिसिटी में मेडिकल ओंकोलॉजी के प्रमुख और भारतीय इम्यूनोथेरैपी फर्म एपीएसी बायोटेक के क्लिनिकल एडवाइजर डॉ. अशोक वैद्य कहते हैं, ''आज ज्यादातर नए समाधान इम्यूनोथेरैपी के इर्द-गिर्द बने हैं—या तो जीन का पता लगाने के लिए ताकि कैंसर को जल्द पकड़ा जा सके या कोशिका को इस तरह रूपांतरित करके जिससे बीमारी को हराने में मदद मिले.ये नई थेरैपी हर मरीज के हिसाब से ढली हैं, हर व्यक्ति के लिए अलग हैं क्योंकि हर व्यक्ति के जींस और कोशिकाएं अनूठी और विशिष्ट होती हैं.’’ कई इम्यूनोथेरैपी अनुसंधान की अवस्था में हैं तो कुछ के क्लिनिकल परीक्षण चल रहे हैं, वहीं कुछ अन्य बाजार के लिए तैयार हैं.इम्यूनोथेरैपी ट्यूमर को दो प्रकारों में बांटती है—गर्म और ठंडे. मेलैनोमा और फेफड़ों के कैंसर सरीखे गर्म ट्यूमर में आम तौर पर प्रतिरक्षा कोशिकाओं (प्रोइन्फ्लेमेटरी साइटोकाइंस और टी-कोशिकाएं) का जमाव होता है और ये कोशिकाएं उस इलाज के प्रति अच्छी प्रतिक्रिया देती हैं जिसे इम्यून चेकपॉइंट ब्लॉकेड या आइसीबी उपचार कहा जाता है.इसमें दवाओं से शरीर में 'चेकपॉइंट’ नाम के उन प्रोटीनों को अवरुद्ध करते हैं जो अक्सर श्वेत रक्त कोशिकाओं को कैंसर कोशिकाओं पर हमला करने से रोकते हैं. प्रॉस्टेट और पैंक्रियाज के कैंसर सरीखे ठंडे ट्यूमर में प्रतिरक्षा कोशिकाओं का कम जमाव होता है और इसलिए ये आइसीबी दवाओं के प्रति खराब प्रतिक्रिया देती हैं. दो नई क्रांतिकारी थेरैपी—सीएआर-टी और एनके सेल—कैंसर के प्रति प्रतिरक्षा कोशिकाओं की प्रतिक्रिया के तरीके को बदल सकती हैं.सीएआर-टी यह काम प्रतिरक्षा कोशिकाओं को जेनेटिक या आनुवंशिक ढंग से बदलकर कर सकती है ताकि वे कैंसर की कोशिकाओं को पहचानकर उन पर हमला कर पाएं, जबकि एनके सेल प्रतिरक्षा कोशिकाओं की घुसपैठ में सुधार लाने के जरिए ठंडे ट्यूमर को गर्म ट्यूमर में बदलकर ऐसा कर सकती है.सीएआर-टी क्रांतिकारी थेरैपी है तो केवल इसलिए नहीं, क्योंकि यह मरीजों को वहां उम्मीद बंधाती है जहां पहले जरा भी नहीं थी, बल्कि इसलिए भी कि इसकी कार्यप्रणाली ऐसी है जिसे कोई भी अस्पताल आसानी से अपना सकता है. इसमें कैंसर के मरीज की श्वेत रक्त कोशिकाएं निकाली जाती हैं, उसी तरह जैसे रक्तदान शिविरों में खून निकाला जाता है. फिर ये इम्यूनील या इम्यूनोएसीटी सरीखी सीएआर-टी कंपनी को भेज दी जाती हैं, जो फिर टी कोशिकाओं को ऐंटीबॉडी सरीखे प्रोटीनों या सीएआर में किमेरिक ऐंटीजन रिसेप्टर से नए सिरे से इनकी बनावट रचती हैं.फिर ये रूपांतरित कोशिकाएं 10 मिनट की प्रक्रिया में मरीज को लौटा दी जाती हैं, जो फिर रोगग्रस्त कैंसर कोशिकाओं पर पिल पड़ती हैं और उन्हें मार डालती हैं. सीएआर-टी का इलाज करवाने वाले पहले मरीज इलिनॉय के स्कॉट मैकिंटायर, जिन्होंने 2017 में उन्नत अवस्था के लिम्फोमा का जल्द इलाज करवा लिया था, आज कैंसर मुक्त जिंदगी जी रहे हैं. शुरुआती डायग्नोसिस यह थी कि उनकी जिंदगी के बस कुछ ही महीने बचे हैं.इम्यूनील ने क्लिनिक बार्सिलोना में करीब 200 मरीजों पर इस थेरैपी का परीक्षण किया. भारत में इसने मरीजों पर दूसरे चरण के क्लिनिकल परीक्षण शुरू कर दिए हैं. यह थेरैपी अब तक अलबत्ता इतनी महंगी रही कि भारत में केवल आखिरी चरण के कैंसर मरीजों को ही दी जा सकी. पुरवार कहते हैं, ''हमारा विजन सीएआर-टी को सभी के लिए सस्ता और सुलभ बनाने का है. अगर यह मदद कर सकती है तो किसी को भी इससे वंचित नहीं रहना चाहिए.हम अगले 18 महीनों में इस उपचार को बाजार में लाने और कई और मरीजों का इलाज करने की उक्वमीद कर रहे हैं.’’ शॉ स्वीकार करती हैं कि यह चुनौती है पर इसमें अवसर भी देखती हैं. वे कहती हैं, ''सीएआर-टी जब सस्ते दाम पर उपलब्ध हो जाएगी, तब आप न केवल ज्यादा मरीजों की सेवा कर सकेंगे बल्कि शुरुआती अवस्था में भी ये उपचार दे सकेंगे. शुरुआती अवस्था में टी कोशिकाएं कहीं ज्यादा दमदार होती हैं. ज्यादा दमदार टी कोशिकाओं की मरम्मत करने का मौका आपको बेहतर नतीजे देता है.’’सीएआर-टी का एक और सहउत्पाद, जिसे सीएआर-एम (किमेरिक ऐंटीजन रिसेप्टर मैक्रोफेज) कहा जाता है, अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिल्वैनिया में मानव परीक्षणों के दौर से गुजर रहा है. कामयाब रहा तो इसका इस्तेमाल गैर-हीमैटोलॉजिकल कैंसरों के इलाज में भी किया जा सकेगा.शॉ कहती हैं, ''इम्यूनील ही नहीं, कई दूसरी कंपनियां भी हाल में सीएआर-टी की गहमागहमी में कूद पड़ी हैं और यह बहुत अच्छी खबर है. मैं उत्साहित हूं कि हम भारत में प्रतिमान बदल सकते हैं और इसे तकरीबन कई हीमोटोलॉजिकल कैंसरों के इलाजों की तरह शुरुआती अवस्था का इलाज बना सकते हैं और बहुत अच्छे नतीजे हासिल कर सकते हैं.’’जिस एक और थेरैपी का काफी इंतजार किया जा रहा है, वह है एनके सेल थेरैपी. टी कोशिकाओं की तरह एनके कोशिकाएं भी खून में स्वाभाविक रूप से पाई जाने वाली श्वेत रक्त कोशिकाएं होती हैं. इस थेरैपी में ऐसी कोशिकाओं को साइटोटॉक्सिसिटी या ट्यूमर किलिंग नाम की प्रक्रिया के जरिए कैंसर के शुरुआती संकेतों पर नजर रखने और उनका पता लगाने के लिए तैयार किया जाता है. साइटोटॉक्सिसिटी निदान पहले के पशु अध्ययनों में असरदार पाई गई है. ज्यादातर अनुसंधानकर्ता ऐसे मोनोक्लोनल ऐंटीबॉडी खोजने में जुटे हैं, जिनका इस्तेमाल एनके कोशिका की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को सक्रिय करने के लिए किया जा सके.भारत में इम्यूनो-ओंकोलॉजी स्टार्ट-अप जुमुटर एक मोनोक्लोनल ऐंटीबॉडी जेडएम008 लेकर आया है जिसका इस्तेमाल प्रोस्टेट कैंसर की कोशिकाओं को निशाना बनाने के लिए किया जा सकता है. यह कंपनी एडीए में इस साल आइएनडी (इन्वेस्टिगेशनल न्यू ड्रग) की अर्जी दाखिल करने और पहले चरण के मानव क्लिनिकल अध्ययन शुरू करने की प्रक्रिया में है. जुमुटर की विकास पाइपलाइन में ऐसे तीन मॉलिक्यूल या अणु हैं—जेडएम008, जेडएम 012 और जेडएम 014.ऐसे कैंसरों में जहां इम्यूनोथेरैपी दवाएं काम नहीं आतीं, क्योंकि डीएनए मिथाइलट्रांसफेरेज नाम का एक एंजाइम प्रतिरक्षा कोशिकाओं में जींस के रूपांतरण को रोक देता है, अनुसंधानकर्ता इम्यूनोथेरैपी के अलग-अलग संयोजनों के साथ प्रयोग कर रहे हैं. जर्नल फॉर इम्यूनोथेरैपी ऑफ कैंसर में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में ब्रिटिश अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि इम्यूनोथेरैपी दवाइयों के साथ डीएनए हाइपोमिथाइलेटिंग एजेंट के संयोजन ने पहले चरण के परीक्षण में एक-तिहाई से ज्यादा मरीजों में कैंसर की बढ़त को रोक दिया. डीएनए हाइपोमिथाइलेटिंग दवा बिगडै़ल एंजाइम को रोक देती है और इम्यूनोथेरैपी दवाओं का असर बढ़ा देती है.कैंसर की जल्द पहचान एक और क्षेत्र है जिसमें बायोजेनेटिक्स या जैवआनुवंशिकता कैंसर मरीजों के जीवित रहने की संभावनाएं बढ़ाने में मदद कर रही है. ट्यूमर का जितनी जल्द पता चले, उससे पूरी तरह उबरने की संभावनाएं उतनी ही बेहतर होती हैं. अभी तक कैंसर के बायोमॉलिक्यूल या जैवअणुओं में निश्चित गुणों—डीएनए, आरएनए और प्रोटीन व्यंजना—की पहचान के लिए हमारे पास चीरफाड़ वाली बायोप्सी रही हैं.इससे नमूना निकालना अक्सर नामुमकिन हो जाता है, खासकर अगर ट्यूमर शरीर के अत्यधिक जोखिम वाले या पहुंच से बाहर हिस्से में हो, जिससे सटीक डायग्नोसिस चुनौती बन जाता है. कई सारे बगैर चीरफाड़ वाले जेनेटिक डायग्नोसिस औजारों के साथ इसका बदलना तय है. बस एक सीधे-सादे ब्लड टेस्ट की जरूरत पड़ेगी.भारत में स्तन कैंसर को ही लीजिए. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, देश में हर चार मिनट में एक महिला में इस रोग का पता चलता है और हर 13 मिनट में इसके कारण एक महिला की जान चली जाती है. अलबत्ता समय रहते पता चल जाए तो उबरने की करीब 90 फीसद संभावना होती है. दिल्ली के अपोलो अस्पताल के सर्जिकल ओंकोलॉजिस्ट डॉ. रमेश सरीन के मुताबिक, मैमोग्राफी (एक्सरे के जरिए स्तन कैंसर की जांच) डायग्नोसिस का सबसे भरोसमंद औजार है, पर यह पर्याप्त संवेदनशील नहीं है.और युवतियों में कैंसर पकड़ने से चूक सकता है. स्तन का एमआरआइ व्यापक रूप से सुलभ नहीं है और गलत पॉजिटिव नतीजे दे सकता है. हाथ से की जाने वाली जांच में बहुत शुरुआती अवस्था में कैंसर कोशिकाओं का पता नहीं चलता, क्योंकि तब वे स्तन के भीतर गहराई में छिपी हो सकती हैं और ट्यूमर उतना बड़ा नहीं होता.दातार कैंसर जेनेटिक्स ने पिछले महीने भारत में ईजीचेक-ब्रेस्ट लॉन्च किया, जिससे करीब 9,000 रुपए के बस एक सीधे-सादे ब्लड टेस्ट से स्तन कैंसर की पहचान की जा सकती है. यह टेस्ट व्यक्ति के शरीर में खून में घूमती ट्यूमर की कोशिकाओं की मौजूदगी का विश्लेषण करता है. नैदानिक परीक्षणों में ईजीचेक-ब्रेस्ट में 92 फीसद से ज्यादा संवेदनशीलता (मरीजों में कैंसर की पहचान की क्षमता) और 99 फीसद से ज्यादा विशिष्टता (कैंसर के मरीजों को स्वस्थ व्यक्तियों से अलग करने की क्षमता) साबित हुई है.अगर आपके खून के नमूने में एक निश्चित जीन मिलता है तो आपको कैंसर है, पर इसकी गैरमौजूदगी का जरूरी तौर पर यह मतलब नहीं कि आपको कैंसर नहीं है. दूसरे शब्दों में, टेस्ट झूठे पॉजिटिव नतीजे नहीं देता, फिर भले ही इसके झूठे नेगेटिव नतीजे देने की संभावना हो.दातार कैंसर जेनेटिक्स ईजीचेक 360 की भी पेशकश करता है, जो अत्यधिक सटीकता के साथ 30 आम कैंसरों का जल्द पता लगाने में मदद करता है, और ट्रूब्लड की भी, जो खून के नमूने में ट्यूमर की कोशिकाओं का विश्लेषण करके ऐसे प्रासंगिक बायोमार्कर या जैवचिन्ह सामने लाता है, जिनके आधार पर कैंसर का निश्चित इलाज किया जा सकता है. भारत में मॉलीक्यूल या आण्विक डायग्नोस्टिक्स की पेशकश करने वाली दूसरी कंपनियों में मिरिअड जेनेटिक्स, सायरे थेरैप्यूटिक्स और कार्किनोस हेल्थकेयर शामिल हैं.डॉक्टरों का कहना है कि मौजूदा कीमत का खर्च उठाने में समर्थ अत्यधिक जोखिम वाले मरीजों के लिए यह उम्मीद की किरण है. डॉ. सरीन कहते हैं, ''कैंसर का निदान कोशिकीय स्तर पर ही होने जा रहा है—जेनेटिक दोषों को समझकर इसका जल्द पता लगाने के लिए भी और इन दोषों को दुरुस्त करके इसके इलाज में भी. इनसानी डीएनए इतना लंबा है कि इसे पूरी तरह समझने में वक्त लगेगा—पर हम निश्चित रूप से सही रास्ते पर हैं.’’कैंसर के इलाज का सस्ता और सुलभ होना दो मुख्य चुनौतियां बना रहेगा, खासकर जहां आर्थिक गैर-बराबरी उतनी व्यापक हों जितनी भारत में. न केवल यह कि नए उपचारों और डायग्नोस्टिक औजारों में कई अभी शुरुआती चरणों में हैं, साथ ही वे काफी महंगे भी हैं. डॉ. ललित कुमार कहते हैं, ''अच्छी खबर यह है कि ये समाधान निदान के उन्नत चरणों में पहुंच गए हैं. अगला चरण कीमत नीचे लाने का होगा.’’विशेषज्ञ बताते हैं कि सस्ता होना धारा के विपरीत चुनौतियों पर निर्भर है. इम्यूनो-ओंकोलॉजिकल या मॉलिक्यूल ओंकोलॉजिकल उत्पाद विकसित करना महंगा है. पुरवार को महज यह समझने में करीब चार साल लगे कि सीएआर-टी उत्पाद को विकसित करने की प्रक्रिया में महारत कैसे हासिल की जाए. इम्यूनोएसीटी को सीएआर-टी उत्पाद का विकास शुरू भर करने के लिए करीब 62 लाख डॉलर (4.9 करोड़ रुपए) की फंडिंग जुटानी पड़ी.डॉ. मूर्ति कहती हैं कि लागतें घटाने के लिए क्वालिटी घटानी होगी. वे कहती हैं, ''क्वालिटी के के साथ समझौता नहीं किया जा सकता. इससे टेक्नोलॉजी की लागत और समय भले बढ़े, पर यह जरूरी और वाजिब है.’’ कंपनियों का कहना है कि नई टेक्नोलॉजी को नमूना एकत्र करने से लेकर प्रयोगशाला में विश्लेषण तक हर संभव गुणवत्ता नियंत्रण की जरूरत होती है, क्योंकि छोटी से छोटी गलती के नतीजे गंभीर हो सकते हैं.नारायण हेल्थ के चेयरमैन और एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. देवी शेट्टी, जिन्होंने बेंगलूरू में देश की पहली अस्पताल-स्थित सीएआर-टी इकाई स्थापित की है, कहते हैं कि उन्होंने करीब नौ मरीजों में कोशिकाएं प्रत्यारोपित की हैं, जिसके हौसला बढ़ाने वाले नतीजे मिले हैं. मगर इकाई स्थापित करने में ही तीन साल लगे. नतीजों के लिहाज से जहां यह अच्छा काम कर रही है, लागतें इतनी ज्यादा हैं (उत्पाद विदेशी है) कि बड़ी तादाद में उत्पादन नहीं किया जा सकता.वे कहते हैं, ''हेल्थकेयर में शुरुआत में कुछ भी हमेशा महंगा ही होता है, चाहे वह टेक्नोलॉजी हो या रोबोटिक सर्जरी. धीरे-धीरे टेक्नोलॉजी बदलती है और क्षमता बढ़ती है और लागत में नाटकीय बदलाव आते हैं. लागत कम करने की रफ्तार तेज करने के लिए सार्वजनिक या निजी वित्तीय मध्यस्थ होने से मदद मिलेगी.’’ उन्हें लगता है कि सीएआर-टी उत्पाद विकसित करते हुए भारत को अंतिम कीमत भी कुछ हद तक नीचे लानी चाहिए.मांग से भी खर्च में कमी आनी चाहिए. वे कहते हैं, ''हम भारत में दिल की कुल सर्जरी में से करीब 14 फीसद सर्जरी करते हैं. कभी-कभी दिन में महज एक बिल्डिंग में 40 सर्जरी चल रही होती हैं. इस मात्रा के साथ आपके नतीजों में सुधार आता है.’’ अलबत्ता विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादा लोग इन नई टेक्नोलॉजी का विकल्प चुनें, इसके लिए पहले भ्रामक जानकारी और जागरूकता की कमी से निपटना होगा.इलाज के नए विकल्पों की जागरूकता फिलहाल देश के कुछ हिस्सों तक सीमित है. विशेषज्ञ मरीजों, डॉक्टरों और वैज्ञानिकों की ज्यादा सक्रिय भागीदारी की वकालत करते हैं. कई लोग ऐसी किसी भी चीज से भय खाते हैं जिसका वास्ता 'आनुवंशिक रूपांतरण’ से हो. ये सारे उपचार अलबत्ता लंबे समय तक व्यापक सुरक्षा परीक्षणों से गुजरते हैं. मसलन, पुरवार की सीएआर-टी थेरैपी लेंटिवायरल वेक्टर (एक किस्म का रेट्रोवायरस जो मानव कोशिका को निशाना बनाने के लिए न्यूक्लिक झिल्ली से गुजर सकती है) का इस्तेमाल करती है, जिनका एक दशक से ज्यादा का सुरक्षा डेटा है और एक भी मृत्यु दर्ज नहीं हुई है.विशेषज्ञों का कहना है कि विकसित की जा रही नई दवाओं में करीब 70 फीसद आनुवंशिक तौर पर रूपांतरित हैं, लिहाजा लोगों के लिए यह समझना बेहद जरूरी है कि वे जिंदगियां बचाएंगी. शॉ सवाल करती हैं, ''अगर यह आपको मौत के कगार से उठाकर अच्छी गुणवत्ता की जिंदगी के साथ जिंदा करने जा रहा है तो आप इसे क्यों नहीं लेंगे?’’वे यह भी कहती हैं, ''कैंसर के इलाज के लिए आप इम्यूनोथेरैपी की जो भी दवा लेते हैं, वे सब आनुवंशिक ढंग से रूपांतरित ऐंटीबॉडी हैं. आनुवंशिक रूपांतरण इलाज के विकल्पों में अद्भुत ढंग से प्रकट होता है. ये गजब की टेक्नोलॉजी हैं. आम तौर पर मरीजों को ये चिंताएं नहीं होतीं, ये आम जन हैं जो नहीं समझते.’’कीमोथेरैपी का प्रसार इस बात का अच्छा उदाहरण है कि नई टेक्नोलॉजी को आम जन तक कैसे ले जाएं. डॉ. ललित कुमार कहते हैं, ''कीमो दवाएं आज भारत में बनती हैं, इसीलिए वे ज्यादा मात्रा और कम कीमत में उपलब्ध हैं. जब आप क्रांतिकारी नया विज्ञान लेकर आते हैं तो भरोसा बड़ी बात है.’’और यह नया विज्ञान निश्चित रूप से क्रांतिकारी है. कामयाब रही तो इम्यूनो और मॉलिक्यूलर ओंकोलॉजी भारत में कैंसर के इलाज को आमूलचूल बदल सकती है और लाखों लोगों को जिंदगी की नई उक्वमीद दे सकती है. मुश्किल कैंसरों का डायग्नोसिस अब मौत का परवाना नहीं रह जाएगा. भारत में इन नए समाधानों को सस्ता और सर्वसुलभ बनाने के लिए भले ही अभी लंबी राह तय करनी हो. मगर एक बार वहां पहुंच गए तो देश का दशकों लंबा कैंसर का बोझ प्राचीन भारतीय इतिहास का महज एक अध्याय भर बन सकता है.भारतीय लोगों के 2025 तक इस रोग से पीडि़त होने का अनुमान, 2021 में संख्या 2.67 करोड़ थीलोग इस रोग से 2018 और 2020 के दौरान मारे गए, यह 2022 में संसद में बताया गयादेश में 2020 में मुख कैंसर के इलाज पर ही बीमा, सरकारी, निजी क्षेत्र, लोगों की जेब और/या धर्मार्थ संस्थाओं से खर्च किए गए, टाटा मेमोरियल के 2022 के अध्ययन से जाहिरस्तन कैंसर के मामले भारत में हर साल आते हैं, महिलाओं में यही कैंसर सबसे ज्यादा‘‘अभी तक कैंसर के इलाज के सिर्फ तीन विकल्प थे: सर्जरी, कीमोथेरैपी और रेडिएशन. अगर ये कारगर नहीं हुए तो आपके पास कोई विकल्प नहीं था: कैंसर आपकी मौत का परवाना था.’’राहुल पुरवार, सीईओ, इम्यूनोएसीटी